पश्चिम बंगाल का इतिहास:- पश्चिम बंगाल का इतिहास बेहद समृद्ध और विविधतापूर्ण है, जिसकी जड़ें प्राचीन सभ्यताओं, साम्राज्यों, औपनिवेशिक शासन, और स्वतंत्रता संग्राम से लेकर आधुनिक भारत तक फैली हुई हैं। इस क्षेत्र का इतिहास न केवल इसके सांस्कृतिक और धार्मिक विकास के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि यह भारत की राजनीतिक और आर्थिक स्थिति को भी प्रभावित करता रहा है।
प्रारंभिक इतिहास
पश्चिम बंगाल का इतिहास महाजनपद काल (600 ईसा पूर्व से 400 ईसा पूर्व) में अंग, वंग और पुंड्र नामक राज्यों से जुड़ा हुआ है। यह क्षेत्र वैदिक काल में “वंग” के नाम से जाना जाता था। महाभारत और अन्य पुरातन ग्रंथों में इस क्षेत्र का उल्लेख मिलता है। बंगाल में गुप्त और मौर्य साम्राज्य का भी वर्चस्व रहा। मौर्य काल के बाद, बंगाल का संबंध पाल, सेन और वर्मन वंशों से भी रहा। पाल वंश (8वीं से 12वीं सदी) ने बंगाल पर लंबे समय तक शासन किया और इसे बौद्ध धर्म के प्रमुख केंद्र के रूप में विकसित किया। पाल शासक धर्मपाल ने नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालय की स्थापना की थी, जिससे यह क्षेत्र शिक्षा और संस्कृति का केंद्र बन गया।
मध्यकाल
12वीं शताब्दी के अंत तक पाल वंश का पतन हो गया, और सेन वंश ने बंगाल पर अधिकार कर लिया। सेन वंश हिंदू धर्म के संरक्षक थे और उन्होंने बंगाल में एक सुदृढ़ शासन स्थापित किया। सेन शासक लक्ष्मण सेन के समय में बंगाल साहित्य और कला में प्रगति की। लेकिन 13वीं शताब्दी की शुरुआत में मुस्लिम शासकों ने इस क्षेत्र पर हमला किया और बंगाल को अपने अधीन कर लिया।
मुस्लिम शासन
1204 में बख्तियार खिलजी ने बंगाल पर आक्रमण किया और इस क्षेत्र को दिल्ली सल्तनत का हिस्सा बना दिया। इस काल में बंगाल सुल्तानate की स्थापना हुई, जो 16वीं शताब्दी तक चली। इस दौरान बंगाल एक प्रमुख व्यापारिक केंद्र बन गया, जहां से यूरोपीय व्यापारियों ने रेशम, मसाले, और अन्य वस्तुओं का व्यापार किया।
मुगल काल
मुगल साम्राज्य के दौरान बंगाल एक महत्वपूर्ण सूबा बना। 16वीं शताब्दी में अकबर के शासनकाल के दौरान बंगाल को मुगल साम्राज्य में शामिल किया गया। बंगाल की उपजाऊ भूमि, विशेषकर गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियों के डेल्टा क्षेत्र ने इसे एक आर्थिक शक्ति बना दिया। बंगाल के नवाबों ने मुगल बादशाहों के तहत काम किया और धीरे-धीरे स्वतंत्रता प्राप्त करने की कोशिश की।
ब्रिटिश औपनिवेशिक काल
1757 में प्लासी के युद्ध में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला की पराजय के बाद, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल पर अधिकार कर लिया। यह भारत में ब्रिटिश शासन की शुरुआत का प्रतीक था। 19वीं शताब्दी तक, बंगाल ब्रिटिश भारत का आर्थिक और राजनीतिक केंद्र बन गया। कोलकाता (तत्कालीन कलकत्ता) को ब्रिटिश भारत की राजधानी के रूप में चुना गया, जिससे यह शहर प्रशासनिक, आर्थिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र बन गया।
बंग-भंग आंदोलन
1905 में, ब्रिटिश सरकार ने बंगाल का विभाजन किया, जिसे बंग-भंग कहा जाता है। इसके पीछे ब्रिटिश सरकार की “फूट डालो और राज करो” की नीति थी। विभाजन के तहत बंगाल को दो हिस्सों में बाँटा गया – पूर्वी बंगाल (जिसमें मुस्लिम बहुसंख्यक थे) और पश्चिमी बंगाल (जिसमें हिंदू बहुसंख्यक थे)। इस विभाजन का उद्देश्य हिंदू-मुस्लिम एकता को कमजोर करना था। बंग-भंग के विरोध में बंगाल के लोग एकजुट हो गए और बड़े पैमाने पर आंदोलन किया। स्वदेशी आंदोलन की शुरुआत हुई, जिसमें विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार और स्वदेशी वस्त्रों का प्रयोग किया गया। 1911 में ब्रिटिश सरकार को विभाजन वापस लेना पड़ा, लेकिन इससे बंगाल में राष्ट्रवादी विचारधारा का उदय हुआ।
स्वतंत्रता संग्राम और विभाजन
20वीं शताब्दी की शुरुआत में बंगाल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक प्रमुख केंद्र बन गया। नेताजी सुभाष चंद्र बोस, रवींद्रनाथ टैगोर, चित्तरंजन दास और श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे नेता बंगाल से उभरे। बंगाल के क्रांतिकारी समूहों ने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह करने की कोशिश की। इस समय, बंगाल के लोग राजनीतिक और सामाजिक सुधारों के लिए जागरूक हो गए थे।
1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद, बंगाल का विभाजन हुआ और इसका पूर्वी हिस्सा पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) का हिस्सा बना, जबकि पश्चिमी बंगाल भारत का हिस्सा बना। यह विभाजन धार्मिक आधार पर हुआ, जिसमें हिंदू बहुल क्षेत्र पश्चिम बंगाल में और मुस्लिम बहुल क्षेत्र पूर्वी बंगाल में आ गया। विभाजन के बाद पश्चिम बंगाल में शरणार्थियों की बाढ़ आई, जिसने सामाजिक और आर्थिक स्थिति को प्रभावित किया।
स्वतंत्रता के बाद पश्चिम बंगाल
स्वतंत्रता के बाद, पश्चिम बंगाल ने औद्योगिक विकास की दिशा में महत्वपूर्ण प्रगति की, लेकिन साथ ही इसे कई चुनौतियों का भी सामना करना पड़ा। 1950 और 1960 के दशक में पश्चिम बंगाल में नक्सलवादी आंदोलन ने जड़ें जमाईं, जो किसानों और मजदूरों के हितों के लिए लड़ा जा रहा था। यह आंदोलन बाद में हिंसक हो गया और राज्य की राजनीतिक स्थिरता को प्रभावित किया।
1977 में, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (CPI(M)) के नेतृत्व में वामपंथी मोर्चा (Left Front) ने पश्चिम बंगाल में सत्ता प्राप्त की। यह सरकार लगभग 34 वर्षों तक सत्ता में रही और इस दौरान भूमि सुधार और कृषक अधिकारों के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किए गए। लेकिन औद्योगिक विकास और रोजगार के अवसरों की कमी के कारण राज्य की आर्थिक स्थिति कमजोर रही।
तृणमूल कांग्रेस का उदय
2011 में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस (TMC) ने वामपंथी मोर्चा की सरकार को हराकर सत्ता में प्रवेश किया। ममता बनर्जी ने राज्य में राजनीतिक और आर्थिक सुधारों की दिशा में कदम उठाए। उन्होंने राज्य के ग्रामीण इलाकों में बुनियादी ढांचे के विकास और सामाजिक कल्याण योजनाओं पर जोर दिया। उनके नेतृत्व में पश्चिम बंगाल ने शिक्षा, स्वास्थ्य और ग्रामीण विकास के क्षेत्र में कुछ महत्वपूर्ण प्रगति की।
सांस्कृतिक धरोहर
पश्चिम बंगाल की सांस्कृतिक धरोहर अद्वितीय है। यहां की कला, साहित्य, संगीत और नृत्य की परंपराएं पूरे भारत में विख्यात हैं। रवींद्रनाथ टैगोर, बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय, और सत्यजित राय जैसे महान साहित्यकार और कलाकार बंगाल से ही थे। यहां का दुर्गा पूजा त्योहार विश्व प्रसिद्ध है और इसे यूनेस्को की सांस्कृतिक धरोहर में भी शामिल किया गया है। बंगाल की साहित्यिक और सांस्कृतिक परंपराएं आधुनिक भारत के सामाजिक और सांस्कृतिक परिदृश्य को निरंतर प्रभावित करती हैं।
निष्कर्ष
पश्चिम बंगाल का इतिहास भारत के व्यापक इतिहास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यहां की राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक घटनाएं भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास को गहराई से प्रभावित करती हैं। प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक, इस क्षेत्र ने अपने विचारों, संघर्षों और उपलब्धियों के माध्यम से न केवल भारत, बल्कि विश्व के अन्य हिस्सों को भी प्रभावित किया है।