माता पार्वती और भगवान शिव के पुत्र भगवान कार्तिकेय का भारतीय पौराणिक कथाओं में महत्वपूर्ण स्थान है। उन्हें युद्ध और शक्ति के देवता माना जाता है, और दक्षिण भारत में विशेष रूप से उनकी पूजा की जाती है। एक ओर जहां कार्तिकेय का व्यक्तित्व साहस, वीरता और ज्ञान से जुड़ा है, वहीं दूसरी ओर उनके जीवन में माता पार्वती द्वारा उन्हें दिए गए श्राप का भी गहरा प्रभाव रहा है। इस श्राप के पीछे की कहानी भावनाओं, पारिवारिक संबंधों और जीवन के महत्वपूर्ण पाठों को उजागर करती है।
परिचय
कार्तिकेय का जन्म एक विशेष उद्देश्य के लिए हुआ था। जब असुर तारकासुर ने देवताओं को परास्त कर तीनों लोकों पर अपना आतंक मचा रखा था, तब देवताओं ने भगवान शिव से प्रार्थना की कि वे उन्हें इस संकट से मुक्ति दिलाएं। केवल भगवान शिव और माता पार्वती के पुत्र ही तारकासुर को मार सकते थे, क्योंकि उसे यह वरदान मिला था कि उसकी मृत्यु शिव पुत्र के हाथों ही होगी। इसी उद्देश्य से भगवान कार्तिकेय का जन्म हुआ और बाद में उन्होंने तारकासुर का वध करके देवताओं को मुक्ति दिलाई।
प्रतियोगिता का प्रसंग
एक बार भगवान शिव और माता पार्वती ने अपने दोनों पुत्रों—गणेश और कार्तिकेय—के बीच एक अनोखी प्रतियोगिता रखी। इसमें यह निर्णय लिया गया कि जो पहले संपूर्ण पृथ्वी की परिक्रमा करेगा, उसे विजेता घोषित किया जाएगा। कार्तिकेय, जो अत्यंत तेजस्वी और उत्साही योद्धा थे, अपने वाहन मयूर (मोर) पर सवार होकर तुरंत पृथ्वी की परिक्रमा करने निकल पड़े। उन्हें विश्वास था कि अपनी गति और शक्ति के बल पर वे इस प्रतियोगिता को आसानी से जीत लेंगे।
वहीं दूसरी ओर, भगवान गणेश ने अपनी बुद्धिमानी का सहारा लिया। उन्होंने पृथ्वी की परिक्रमा करने के बजाय अपने माता-पिता—भगवान शिव और माता पार्वती—की परिक्रमा की। गणेश जी ने यह तर्क दिया कि माता-पिता का स्थान संपूर्ण ब्रह्मांड में सर्वोपरि होता है और उनकी परिक्रमा करना ही पूरे संसार की परिक्रमा करने के समान है। भगवान शिव और माता पार्वती गणेश की इस बुद्धिमानी से अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्हें विजेता घोषित कर दिया।
कार्तिकेय का आक्रोश
जब कार्तिकेय ने देखा कि गणेश ने प्रतियोगिता जीत ली है, तो उन्हें गहरा धक्का लगा। उन्हें इस बात से अत्यधिक दुःख और क्रोध हुआ कि उन्होंने पूरे परिश्रम से पृथ्वी की परिक्रमा की, फिर भी वे प्रतियोगिता हार गए। उन्हें यह महसूस हुआ कि उनके परिश्रम और उनकी गति का कोई महत्व नहीं दिया गया। क्रोध और असंतोष में वे कैलाश पर्वत छोड़कर दूर चले गए।
कार्तिकेय का यह निर्णय उनके स्वाभिमान और आत्मसम्मान से जुड़ा था। उन्हें यह महसूस हुआ कि उनके साथ अन्याय हुआ है और माता-पिता ने उनके प्रयासों को अनदेखा किया है। इस आक्रोश में कार्तिकेय ने कैलाश पर्वत छोड़ दिया और दक्षिण दिशा की ओर चले गए। इस घटना ने उन्हें अपने परिवार से दूर कर दिया और वे अकेलेपन की ओर बढ़ने लगे।
माता पार्वती का श्राप
जब माता पार्वती ने देखा कि उनका पुत्र क्रोध और दुःख में कैलाश छोड़कर चला गया है, तो उन्हें अत्यधिक दुःख हुआ। एक मां के रूप में वे अपने पुत्र के इस व्यवहार से आहत थीं। उन्हें यह अस्वीकार्य लगा कि कार्तिकेय ने परिवार के प्रेम और स्नेह को त्यागकर अकेलेपन का मार्ग चुना। माता पार्वती के मन में अपने पुत्र के प्रति प्रेम था, लेकिन साथ ही उन्होंने उसे जीवन का महत्वपूर्ण पाठ सिखाने का भी निश्चय किया।
इस स्थिति में माता पार्वती ने कार्तिकेय को श्राप दिया कि वे जीवनभर अविवाहित रहेंगे। यह श्राप कार्तिकेय के जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ था। उन्हें विवाह का सुख प्राप्त नहीं होगा और वे सदा के लिए अकेले रहेंगे। इस श्राप के परिणामस्वरूप कार्तिकेय को आज भी दक्षिण भारत में “कुमारस्वामी” (अविवाहित देवता) के रूप में पूजा जाता है।
श्राप का अर्थ और महत्व
माता पार्वती द्वारा दिए गए इस श्राप के पीछे एक गहरी शिक्षण की भावना निहित है। कार्तिकेय का क्रोध और स्वाभिमान यह दर्शाते हैं कि कभी-कभी व्यक्ति अपने परिश्रम और प्रयासों का उचित सम्मान न मिलने पर नाराज हो जाता है और परिवार तथा प्रियजनों से दूर होने का निर्णय ले लेता है। यह मानव स्वभाव की एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है, लेकिन माता पार्वती ने इस स्थिति में कार्तिकेय को यह सिखाने का प्रयास किया कि स्वाभिमान और आक्रोश के कारण परिवार से दूर होना सही मार्ग नहीं है।
माता पार्वती का श्राप न केवल कार्तिकेय के जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड़ था, बल्कि यह भी एक संदेश है कि जीवन में रिश्तों का महत्व सबसे बड़ा है। स्वाभिमान और गर्व से व्यक्ति अपने प्रियजनों से दूर तो हो सकता है, लेकिन यह दूरी अंततः दुःख और अकेलेपन का कारण बनती है। माता पार्वती ने कार्तिकेय को जीवन का यह पाठ सिखाने के लिए ही यह श्राप दिया था।
अन्य संस्करण और व्याख्याएं
इस कथा के विभिन्न संस्करणों में माता पार्वती के श्राप को लेकर भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण मिलते हैं। कुछ पुराणों और लोककथाओं में यह बताया गया है कि माता पार्वती ने यह श्राप कार्तिकेय के क्रोध और उनकी अपनी भावनात्मक स्थिति के आधार पर दिया था। वहीं कुछ अन्य संस्करणों में यह बताया गया है कि यह श्राप कार्तिकेय के द्वारा अपने माता-पिता का अनादर करने के कारण दिया गया था।
दक्षिण भारतीय परंपराओं में, खासकर तमिल संस्कृति में, कार्तिकेय को अविवाहित और सदैव युवा देवता के रूप में पूजा जाता है। यहां कार्तिकेय का स्वरूप मुख्यतः एक वीर योद्धा और समर्पित देवता के रूप में देखा जाता है, जो अपने कर्तव्यों के प्रति पूर्ण निष्ठा रखते हैं। माता पार्वती का श्राप इस दृष्टिकोण में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, जो यह दर्शाता है कि कार्तिकेय ने अपने स्वाभिमान और वीरता के कारण अकेलेपन को स्वीकार किया।
निष्कर्ष
माता पार्वती द्वारा कार्तिकेय को दिया गया श्राप एक गहन और शिक्षाप्रद कथा है, जो पारिवारिक संबंधों, आत्मसम्मान, और जीवन के मूल्यों को दर्शाती है। इस श्राप के माध्यम से यह संदेश मिलता है कि व्यक्ति को अपने क्रोध और स्वाभिमान पर नियंत्रण रखना चाहिए और परिवार तथा रिश्तों का महत्व समझना चाहिए। जीवन में कभी-कभी ऐसी परिस्थितियाँ आती हैं, जब हमें अपनी भावनाओं और निर्णयों का गहराई से विश्लेषण करना पड़ता है, ताकि हम सही दिशा में आगे बढ़ सकें।
इस कथा के माध्यम से माता पार्वती ने कार्तिकेय को जीवन का यह महत्वपूर्ण पाठ सिखाने का प्रयास किया कि परिवार और रिश्तों का सम्मान सबसे बड़ा होता है, और किसी भी स्थिति में इन्हें त्यागना सही नहीं है।